भटकते रहे ध्येय-पथ के बिना हम
न सोचा कभी देश क्या धर्म क्या है
न जाना कभी पा मनुज-तन जगत में
हमारे लिये श्रेष्ठतम कर्म क्या है
दिया ज्ञान जबसे मगर आपने है
निरंतर प्रगति की डगर मिल गई है ॥१॥
न सोचा कभी देश क्या धर्म क्या है
न जाना कभी पा मनुज-तन जगत में
हमारे लिये श्रेष्ठतम कर्म क्या है
दिया ज्ञान जबसे मगर आपने है
निरंतर प्रगति की डगर मिल गई है ॥१॥
समाया हुआ घोर तम सर्वदिक् था
सुपथ है किधर कुछ नहीं सूझता था
सभी सुप्त थे घोर तम में अकेला
ह्रदय आपका हे तपी जूझता था
जलाकर स्वयं को किया मार्ग जगमग
हमें प्रेरणा की डगर मिल गई ॥२॥
सुपथ है किधर कुछ नहीं सूझता था
सभी सुप्त थे घोर तम में अकेला
ह्रदय आपका हे तपी जूझता था
जलाकर स्वयं को किया मार्ग जगमग
हमें प्रेरणा की डगर मिल गई ॥२॥
बहुत थे दुःखी हिन्दु निज देश में ही
युगों से सदा घोर अपमान पाया
द्रवित हो गये आप यह दृश्य देखा
नहीं एक पल को कभी चैन पाया
ह्रदय की व्यथा संघ बनकर फुट निकली
हमें संगठन की डगर मिल गई है॥३॥
युगों से सदा घोर अपमान पाया
द्रवित हो गये आप यह दृश्य देखा
नहीं एक पल को कभी चैन पाया
ह्रदय की व्यथा संघ बनकर फुट निकली
हमें संगठन की डगर मिल गई है॥३॥
करेंगे पुनः हम सुखी मातृ भू को
यही आपने शब्द मुख से कहे थे
पुनः हिन्दु का हो सुयश गान जग में
संजोये यही स्वप्न पथ पर बढ़े थे
जला दीप ज्योतित किया मातृ मन्दिर
हमें अर्चना की डगर मिल गई है ॥४॥
यही आपने शब्द मुख से कहे थे
पुनः हिन्दु का हो सुयश गान जग में
संजोये यही स्वप्न पथ पर बढ़े थे
जला दीप ज्योतित किया मातृ मन्दिर
हमें अर्चना की डगर मिल गई है ॥४॥


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