बौद्धिक
विषय : स्वयंसेवक
संघ स्थापना के पूर्व स्वयंसेवक शब्द की कोई गरिमा नहीं थी। भिन्न-भिन्न संस्थाओं द्वारा आयोजित जुलूस, सभा तथा अधिवेशनों में दरी जाजिम बिछाने वाला, आने वाले कार्यकर्ताओं की देखरेख करने तथा बताए हुए काम करने वाले को ही वालंटियर जाने स्वयंसेवक करते थे। रहना, खाना निशुल्क, गणवेश भी नि:शुल्क। इन्हें कोई गरिमा नहीं थी।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस शब्द को गरिमा दी, प्राधान्य दिया। स्वप्रेरणा से समाज सेवा का संकल्प लेने वाला संघ का स्वयंसेवक कहलाता था। न वह व्यक्तिनिष्ठ रहता था न स्थाननिष्ठ, केवल निष्ठा तथा केवल तत्वनिष्ठा यही उसकी प्रेरणा एवं सेवा के लिए आजीवन क्रियाशीलता यह उसका संकल्प रहता था।
प्रतिदिन की संघ प्रार्थना के माध्यम से वह अपने संकल्प का स्मरण करता है एवं स्वीकृत पथ से विचलित ना होने का परमपिता से आशीष मांगता है।
संघ संस्थापक डॉ हेडगेवार जी द्वारा अपेक्षित बातों को स्मरण रखते हुए स्वयंसेवक तदनुसार अपने जीवन को ढालता है
१. स्वयंसेवक से अपेक्षा की जाती है कि वह प्रतिवर्ष 4-5 नए स्वयंसेवक बनावे।
२. स्वयंसेवक अपने जीवन में यह कहने का कुअवसर कभी ना आने दे कि वह कुछ वर्ष पूर्व में संघ का स्वयंसेवक था।
३. स्वयंसेवक सदैव ध्यान रखता है कि वह संघ कार्य के लिए है, संघ उसके कार्य के लिए नहीं।
४. शाखा साध्य नहीं साधन है। साध्य तो समाज सेवा ही है।
५. संघ संस्था नहीं परिवार है।
स्वयंसेवक उपरोक्त बातों को मन में रह कर जीवन यापन करता है एवं संघ कार्य की वृद्धि भी करता है। यह सब करते समय वहां गीत गी को पत्तियां सदैव याद रखता है।
नहीं चाहिए पद, यश, गरिमा,
सभी चढ़े मां के चरणों में।
भारत मां की जय हो केवल,
शब्द पड़े जग के कानों में।।
परम पूज्य श्री गुरु जी की जन्म शताब्दी के प्रसंग पर हम संघ की कल्पना का स्वयमसेवक बनने का प्रयास करें एवं ऐसे संख्यक स्वयंसेवकों का देशव्यापी व समाजव्यापी संगठन खड़ा करने में अपना समय एवं शक्ति लगाने का संकल्प करें। यह संकल्प गुरुजी के प्रति अंतःकरण में स्थित श्रद्धा प्रकट करने का मार्ग तो है ही साथ ही गुरु जी के सपनों को साकार कर भारत को विश्व गुरु के स्थान पर आसीन करने का भी एक मार्ग है।
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