धीरे हार्न बजा रे पगले, देश का हिंदू सोया है।।




सोचा तुमको आज बता दूँ,
यह हजार वर्ष से सोया है।।

धीरे हार्न बजा रे पगले,
देश का हिंदू सोया है।।

पृथ्वीराज की आंखें खोकर,
यह दिवा स्वप्न में खोया है,
मंदिर तुड़वा पुरखे कटवाकर,
यह हजार साल से सोया है,
तू धीरे हार्न बजा रे पगले,
देश का हिंदू सोया है ।।१।।

आधे पुरखों की सुन्नत करवाकर,
मंडी में बेटी बिचवा के।
बेटों के शीश करोड़ों देकर,
यह संविधान में खोया है।
तो धीरे हार्न बजा रे पगले,
देश का हिंदू सोया है।।२।।

राणा का बलिदान कराकर,
तेग गुरु का शीश कटाकर।
गुरु गोविंद के घर को खाकर,
यह स्वार्थ में खोया है।
धीरे हार्न बजा रे पगले,
देश का हिंदू सोया है ।।३।।

बंदा बैरागी का अंग कटाकर,
उसके सुत का कलेजा खाकर।
संभाजी के एक-एक टुकड़े,
अधर्म के कुत्तों को खिलवाकर।
न जाने कैसे यह मूर्ख,
अमन ख्वाब में खोया है।
धीरे हार्न बजा रे पगले,
देश का हिंदू सोया है ।।४।।

घर, बेटी, पुरखे, मंदिर,
क्या-क्या हमने खोया है।
कितनों ने शीश कटाए हैं,
कितनों ने फंदा चूमा है।
सबसे ज्यादा होकर भी,
यह जात पात में टूटा है।
धीरे हार्न बजा रे पगले,
देश का हिंदू सोया है ।।५।।

जो हल्दीघाटी में बहा लहू,
पानी पानी करता पानी को।
वहां पे राणा सर काट-काट के,
करता था भेंट भवानी को।
अकबर का राज्य बचाने को,
तव मान सिंह ही आया था।
एक हिंदू के कारण ही,
तव वंश मुगलिया जिंदा था।

जब रणभेरी थी दक्षिण में,
और मौत फिरि मतवाली सी।
और वीर शिवाजी की तलवारें,
भरती थी खच्चर काली सी।
किस मुगल में रहा जोर,
जो छत्रपति को झुका सका।
यह जय सिंह का रहा द्रोह,
जो वीर शिवा को पकड़ सका।

पृथ्वीराज की पीठ में बरक्षी,
जयचन्दो ने घोंपी थी।
राणा के रण में सम्मुख,
मानसिंह की फौजें थी।
वीर शिवाजी की तलवारें,
जयसिंह ने रोकी थी।
और संभाजी से गद्दारी,
गणोजी शिर्के ने की थी।

क्यों हम दूजों को कोशे,
जब अपने ही विष  बोते हैं।
कुत्तों की गद्दारी से ही यहां,
सिंह पराजित होते हैं।
और उन गद्दारों का आज लहू,
सेक्युलर बनकर जिंदा है।
धीरे हार्न बजा रे पगले,
देश का हिंदू सोया है ।।६।।

और सुनो बे स्वार्थ के पुतलों,
कुछ और भी तुमको याद दिला दें,
बापू के उस मौन के बदले,
हमने भगत सिंह को खोया है।
उस बापू के मोह में पड़के,
हमने सरदार को छोड़ा है,

उस फर्जी पंडित के छल से,
हमने नेताजी तक को खोया है।
अंग्रेजों के चाट के तलवे,
ये अपनी पहचान भी खोया है,
तो धीरे हार्न बजा रे पगले,
देश का हिंदू सोया है ।।७।।

अपने धर्म के नियम पड़े सब,
कब से बंद किताबों में,
संध्या बाती घरों से गायब,
अब ये इफ्तारी करता है।
अब इसे बचाने की चिंता में,
तू इतना क्यों खोया है।
तो धीरे हार्न बजा रे पगले,
देश का हिंदू सोया है ।।८।।

पुरखे खोकर चैन मिला है,
पूरी नींद तो सोने दे।
बंगला, गाड़ी, नौकर, चाकर,
भरपूर तरक्की होने दें।
और इन्हें जगाने की हठ में,
तू क्यों दुख में रोया है।

तो धीरे हार्न बजा रे पगले,
देश का हिंदू सोया है,
सोचा तुमको आज बता दूँ,
यह हजार वर्ष सोया है।
धीरे हार्न बजा रे पगले,
देश का हिंदू सोया है ।।९।।

टिप्पणियाँ

Santosh Kumar Sharma ने कहा…
अति सुंदर एवं प्रशंसनीय | यह कविता हिंदुओं की वास्तविक इतिहास का सटीक वर्णन करती है