अमृत वचन क्रम १
अपने इस संघ कार्य की प्रगति हो कि कभी जगद्गुरु कहलाने वाले इस पवित्र ध्वज के सामने एक बार पुनः संसार नतमस्तक हो जाए, इसके चरणों में अपने जीवन की भेंट चढ़ा इसकी पूजा करने के लिए बाध्य हो जाए। यही आकांक्षाएं आवेश अपने अंतःकरण में उत्पन्न हो।
परम पूज्य श्री गुरु जी
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अमृत वचन क्रम २
मातृभूमि के वैभव के लिए, असंख्य विपत्तियों में भी फलाफल की चिंता किए बिना, जो सर्वस्व अर्पण करें और ऐसा करते हुए भी स्वयं को धन्य माने वही सच्चा सेवक है।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय
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अमृत वचन क्रम ३
व्यक्तिगत जीवन को समर्पित करते हुए समष्टि जीवन को परिपुष्ट करने के प्रयास को ही यज्ञ कहा गया है। सद्गुरु रूपी अग्नि में अयोग्य, अनिष्ट, अहितकर बातों का होम करना ही यज्ञ है। श्रद्धामय, त्यागमय, सेवामय, तपस्यामय जीवन व्यतीत करना ही यज्ञ है। यज्ञ की अधिष्ठात्री देवता अग्नि है। अग्नि का प्रतीक है, ज्वाला और ज्वालाओं का प्रतिरूप है हमारा परम पवित्र भगवा ध्वज।
परम पूज्य श्री गुरु जी
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अमृत वचन क्रम ४
मेरा सपना है कि विश्व में भारत अपनी विद्या और चरित्र के बल पर जाना जाए।
परम पूज्य रज्जू भैया
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अमृत वचन क्रम ५
हिंदू समाज में श्रेष्ठतम दार्शनिक सिद्धांतों के बावजूद काल के प्रवाह में ऐसी अनेक कुरीतिया व शिथिलताएं आ गई जिससे हमारे शत्रुओं ने हमें परास्त किया। इनमें सर्वाधिक कष्टकर जाति के नाम पर हिंदू-हिंदू में भेदभाव व अस्पृश्यता है। हिंदू समाज को इससे मुक्त कर, एकरस, सजग, सबल, समृद्धि और स्वावलंबी बनाने हेतु अनेक महापुरुषों ने अपना जीवन खपा दिया है, उसी से आज समाज में अनुकूलता दिखती है।
परम पूज्य कुप्प. सी. सुदर्शन
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अमृत वचन क्रम ६
अपना विशाल हिंदू समाज विविधता में एकता को समेटे हुए है। आवश्यकता है आज की इस पावन बेला पर आपस में अपनापन का भाव जगा कर नाना रूपों में विखरे हिंदू समाज को एकता रूपी रक्षा सूत्र में बांधकर पुनः संगठित करने की। आज का पावन दिन है, आपस में अपने पराए के भेद को भुलाकर गले मिलकर बंधु भाव रूपी स्नेहसूत्र बांधने का। जिससे इस विशाल संगठित समाज के आगे विघटनकारी शक्तियां नतमस्तक हो जाए।
|| भारत माता की जय ||
रक्षाबंधन उत्सव के अवसर पर
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अमृत वचन क्रम ७
वैभव संपन्नता को प्राप्त करना तो सरल है किंतु जो प्राप्त किया है उसका ठीक प्रकार से संरक्षण करना उतना ही जरूरी है। अपने यहां कहा गया है 'अप्राप्तस्य प्राप्ति: प्राप्तस्य रक्षणं इति योग क्षेमः।'
परम पूज्य श्री गुरु जी
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अमृत वचन क्रम ८
डॉक्टर साहब ने एक बात स्पष्ट अनुभव की थी कि राष्ट्र में अजेय शक्ति खड़ी करनी है तो इस समाज को उसकी एकात्मता का ज्ञान देकर एकरस, एकरूप विचारों और संस्कार देने के लिए दैनिक शाखा के अतिरिक्त अन्य कोई पद्धति फलदाई नहीं हो सकती।
परम पूज्य श्री गुरु जी
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अमृत वचन क्रम ९
हम सब अपने हिंदुत्व के सिद्धांतों पर अडिग रहकर अपने समाज में व्याप्त सभी प्रकार के ऊॅच, नीच, गरीब, अमीर, पंथ, भाषा, प्रांत आदि भेदों से ऊपर उठकर एकरस, जागरूक, कर्मशील, संगठित, अनुशासित हिंदू समाज बनाने के लिए और तेजी से प्रयास करें।
परम पूज्य श्री बालासाहब देवरस
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अमृत वचन क्रम १०
हमारे चारों ओर सहस्त्रों मानव हैं, जो भूखे एवं निराश्रित हैं जो जीवन की निम्नतम आवश्यकताओं से भी वंचित है और जिनकी कष्ट कथाएं पाषाण के समान कठोर ह्रदय को भी पिघलाती है। निश्चय ही वह ईश्वर है जिसने गरीब, निराश्रित एवं पीड़ित का रूप धारण किया है। अतः दरिद्र नारायण की सेवा का अवसर मत गवाओं।
परम पूज्य माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर
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अमृत वचन क्रम ११
अरे। असंभव को भी संभव ,
करके आज जग को दिखा देगें,
अगर कहो तो एक निमिष में ,हम भूतल आकाश मिला दें।
किन्तु नहीं विध्वंस विश्व का,
हम अब भी निर्माण करेंगे,
अरे।स्वयं विष पी करके भी
मानव का कल्याण करेंगे।
-- प०पू०गुरूजी
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अमृत वचन क्रम १२
कुत्ते को छूते हो, सर्प को दूध पिलाते हो, प्रतिदिन चूहे का खून चूसने वाली बिल्ली के साथ बैठकर एक थाली में खाते हो, तो फिर हे ! हिंदुओं अपने ही जैसे इन मनुष्यों को, जो तेरे ही राम और देवताओं के उपासक है, अपने ही देश बंधुओं को छूने से तुम्हें किस बात की शर्म आती है ।
वीर सावरकर
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अमृत वचन क्रम १३
समर्थ गुरु रामदास जी ने कहा -
"शक्ति से राज्य की उपलब्धि हो पाती है और युक्ति के द्वारा ही कार्य सिद्ध हो पाते हैं । जहां पर शक्ति एवं युक्ति दोनों विद्यमान हो वहां श्री का वास होता है ।
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अमृत वचन क्रम १४
हम लोगों को हमेशा सोचना चाहिए कि जिस कार्य को करने का हमने प्रण किया है और जो उद्देश्य हमारे सामने हैं, उसे प्राप्त करने के लिए हम कितना काम कर रहे हैं। जिस गति से तथा जिस प्रमाण में हम अपने कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं, क्या यह गति या प्रमाण, हमारी कार्य सिद्धि के लिए पर्याप्त है।
आद्य सरसंघचालक परम पूज्य डॉ0 केशवराव बलिरामराव हेडगेवार
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अमृत वचन क्रम १५
संगठन ही राष्ट्र की प्रमुख शक्ति होती है । संसार में कोई भी समस्या हल करनी हो तो वह शक्ति के आधार पर ही हो सकती है । शक्तिहीन राष्ट्र की कोई भी आकांक्षा कभी भी सफल नहीं होती । परंतु सामर्थ्यशाली राष्ट्र कोई भी काम, जब चाहे अपनी तब अपनी इच्छा अनुसार कर सकता है ।
-डॉक्टर हेडगेवार
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अमृत वचन क्रम १६
जीवन का पहला और स्पष्ट लक्ष्य है -- विस्तार । यदि तुम जीवित रहना चाहते हो, तो तुम्हें फैलना ही होगा। जिस क्षण तुम जीवन का विस्तार बंद कर दोगे, उसी क्षण से जान लेना कि मृत्यु ने तुम्हें घर लिया है, विपत्तियां तुम्हारे सामने है।
--स्वामी विवेकानंद
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अमृत वचन क्रम १७
व्यक्तिगत जीवन को समर्पित करते हुए, समष्टि जीवन को परिपुष्ट करने के प्रयास को ही यज्ञ कहा गया है। सद्गुण रूपी अग्नि में अयोग्य अनिष्ट और अहित बातों का होम करना ही यज्ञ है। श्रद्धामय, त्यागकर, सेवामय, तपस्यामय जीवन व्यतीत करना ही यज्ञ है। यज्ञ की अधिष्ठात्री देवता अग्नि है। अग्नि का प्रतीक है ज्वाला और ज्वालाओं का प्रतिरूप है -- हमारा परम पवित्र भगवा ध्वज
प० पू० श्री गुरुजी
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अमृत वचन क्रम १८
परम पूजनीय श्री गुरुजी ने कहा, "पूजा का अर्थ है समर्पण की भावना को प्रकट करना। इसका दृश्य स्वरूप क्या होगा ? अपने लिए जो बहुत उपयोगी वस्तु हो उसे देना ही समर्पण का दृश्य स्वरूप होगा। व्यवहारिक जगत में हमारे स्वार्थों की पूर्ति के लिए धन की आवश्यकता रहती है। सुख समाधान, ऐश्वर्य, अन्यान्य प्रकार की उपयोग सामग्री, सब कुछ धन से प्राप्त होती है। धन को पर्याप्त प्रमाण में अपने आराध्य देव के सामने रखना ही सच्चा समर्पण है। यही वास्तव में पूजा है। यह द्रव्य समर्पण सारे जीवन समर्पण का प्रतीक और प्रारंभ मात्र है। हमने अधिक से अधिक दिया है, ऐसा संतोष हमको प्राप्त होता रहे, इतना हमे देना चाहिए।
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अमृत वचन क्रम १९
सेवा हमारा कर्तव्य है, अनुकम्पा नहीं, धर्म पर चलने का अर्थ है बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय के उद्देश्य के लिए समर्पित होकर, कर्मशील होना ।
स्वामी विवेकानन्द
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अमृत वचन क्रम २०
समाज शक्ति को जगाने वाले हजारों, लाखों कार्यकर्ता चाहिए तब समाज शक्ति जगती है। ऐसे कार्यकर्ता समाज के भीतर चाहिए, जो निष्पृह हो, देशभक्त हो और अनुशासन में बंधे हुए हो। उनकी आंखों के सामने एक ही सपना हो कि भारत माता की प्रतिष्ठा विश्व में कैसे पढ़ें ।
परम पूज्य रज्जू भैया
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अमृत वचन क्रम २१
देश के लिए मरने वाले श्रेष्ठ है, पर उनसे भी श्रेष्ठ है समाज के लिए जीने वाले। वास्तव में जो धर्म और समाज के लिए जीता है, वही धर्म और समाज के लिए मरता भी है।
पं० दीनदयाल उपाध्याय

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