सुभाषित क्रम १
विदुषां शास्त्रतः शक्ति: वीराणां सा च शस्त्रतः ।
धन श्रमादितोऽन्येषां, शक्ति ही सर्वस्य संघतः ।।
(संघ गीता)
अर्थ : विद्वान लोग शास्त्रों से जिस शक्ति को प्राप्त करते हैं वीरों को वह शक्ति शास्त्रों से मिलती है अन्य लोग थाना एवं श्रम शक्ति को प्राप्त करते हैं परंतु संगठन द्वारा यह समस्त शक्तियां सबको प्राप्त होती है।
सुभाषित क्रम २
दावा द्रुम दण्ड पर, चीता मृगझुण्ड पर,
भूषन वितुण्ड पर, जैसे मृगराज है।
तेज तम अंस पर, कान्ह जिमी कंस पर
त्यों म्लेक्छ वंश पर, शेर शिवराज है।।
अर्थ : जिस प्रकार वन पर दावानल का, हिरणों के झुंड पर चीते का, मतवाले हाथियों के समूह पर मृगराज का, अंधेरे पर सूर्य का तथा जिस प्रकार कंस पर कृष्ण का अधिकार था वैसा ही म्लेक्छ वंश पर यह सिंह सदृश शिवराज (शिवाजी) है।
सुभाषित क्रम ३
जन्म स्थान महर्षिणां, तपस्थानं च योगिनाम्।
न जगद् वन्द्यतां राष्ट्र भवेत संघ बलं बिना ।।
अर्थः चाहे महर्षियों की जन्मभूमि हो, चाहे योगियों की तपोभूमि हो, किंतु जिस राष्ट्र के निवासियों में संगठन का बल नहीं होता, वह राष्ट्र संसार के लिए वंदनीय नहीं हो सकता।
सुभाषित क्रम ४
रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजिए डार।
जहां काम आवे सुई, कहा करे तलवार ।।
अर्थ: बड़े व्यक्ति या बड़ी वस्तु की तुलना में छोटी वस्तु या व्यक्ति की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। जहां सुई का उपयोग होता है वहां तलवार का प्रयोग करना संभव नहीं है। बड़े छोटे का अंतर पद, आयु, ज्ञान, आकार आदि की दृष्टि से सदैव रहता है। काल एवं परिस्थिति के अनुसार प्रत्येक की उपयोगिता है।
सुभाषित क्रम ५
यद्यष्टाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो: जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
अर्थ : श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण देता है, दूसरे मनुष्य उसी के अनुसार आचरण करते हैं।
सुभाषित क्रम ६
अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकघृक ।
सुमधा मेधजो धन्यः सत्यमेघा धराधरः ।।
(विष्णु सहस्त्रनाम श्लोक १३) ( भीष्म युधिष्ठिर संवाद)
अर्थः- जिसे स्वयं के सम्मान की चिंता नहीं जो दूसरों का सम्मान करता है। इसी कारण सर्वमान्य होता है। वही समाज का नैतिक नेतृत्व प्राप्त करता है। ऐसे कार्यकर्ता मेधावी, धन्य, अपनी बात को योग्य रूप से रखने वाला तथा पृथ्वी की भांति सब को संभालने वाला होता है।
सुभाषित क्रम ७
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना ।
सेवा धरमु कठिन जग जाना ।।
स्वामि धरम स्वारथद्वि विरोध ।
बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू ।।
अर्थ : (भरत जी कहते हैं) वेदशास्त्र और पुराणों में प्रसिद्ध है और जगत जानता है कि सेवा धर्म बड़ा कठिन होता है और राष्ट्रधर्म और साथ में विरोध है। वैर अंधा होता है और प्रेम को ज्ञान नहीं रहता है ।
सुभाषित क्रम ८
अधमा: धनं इच्छन्ति, धनं मानं च मध्यमा:।
उत्तमा: मानं इच्छन्ति, मानो ही महतां धनं।।
भावार्थ :
अधम् व्यक्ति केवल धन की इच्छा रखते हैं, मध्यम व्यक्ति धन एवं सम्मान दोनों की इच्छा रखते हैं, उत्तम व्यक्ति केवल सम्मान की इच्छा रखते हैं, सम्मान धन से बड़ा होता है।
सुभाषित क्रम ९
उद्यमं साहसं धैर्यं, बुद्धि, शक्ति, पराक्रमः ।
षडेते यत्र वर्तन्ते, तत्र देवः सहायकृत ।।
अर्थात्--
उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम यह छह गुण जिसके पास होते हैं, देवता उसकी सहायता करते हैं।
सुभाषित क्रम १०
वृक्ष कबहुं नहिं फल भखै, नदी न संचै नीर।परमार्थ के कारणे, साधुन धरा शरीर।।
भावार्थ -- वृक्ष कभी भी अपने फल स्वयं नहीं खाते हैं। नदी अपना पानी स्वयं नहीं पीती। श्रेष्ठ पुरुष परमार्थ के कारण (परोपकार के लिए) शरीर धारण करते हैं।
सुभाषित क्रम ११
चतुर्घा पुरुषा लोके संघकार्योपकारक: ।
मर्मज्ञा: युक्तकर्मग्या: सद्गुणज्ञा: सुयोजिका: ।।
अर्थ : समाज में संघ (संगठन) कार्य के उपकारक चार प्रकार के लोग होते हैं - मर्मज्ञ, योग्य कर्म को जानने वाले, सद्गुणों को जाने वाले और अच्छे योजक लोग ।
सुभाषित क्रम १२
दूध पियो कसरत करो, नित्य जपो हरि नाम ।
मन लगाय विद्या पढ़ो, पूर्ण होय सब काम ।।
अर्थ : प्रतिदिन दूध पियो, व्यायाम करो, नित्य प्रभु का स्मरण करो । मन लगाकर विद्या अध्ययन करो तो सभी प्रकार के कार्य पूर्ण होंगे ।
सुभाषित क्रम १३
सचिव, वैद, गुरु तीनि जो, प्रिय बोलहि भय आस ।
राज, धर्म, तन तीनि कर, होई बेगिही नास ।।
अर्थ : यदि किसी राजा या शासक के भय से सचिव, वैद्य या गुरु नीति के विरुद्ध प्रिय बोलते हो तो उस राज्य, उस तन और उस धर्म का शीघ्र क्षरण हो जाता है।
सुभाषित क्रम १४
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम।।
अर्थ - जो व्यक्ति सुशील और विनम्र होते हैं, बड़ों का अभिवादन व सम्मान करने वाले होते हैं तथा अपने बुजुर्गों की सेवा करने वाले होते हैं। उनकी आयु, विद्या, कीर्ति और बल इन चारों में वृद्धि होती है।
उपदेशो ही मुर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये।
पयः पानं भुजंग्ड़ाम केवलं विष-वर्धनम्।।
अर्थ :- उपदेश देने से मुर्ख का क्रोध बढ़ता है, वह घटता नहीं है। सांप को दूध पिलाना सिर्फ उसके विष को बढ़ाना है।
सुभाषित क्रम १६
ग्रामे ग्रामे सभा कार्या, ग्रामे ग्रामे कथा शुभा ।
पाठशाला मल्लशाला, प्रति पर्व महोत्सव: ।।
भावार्थ : ग्राम ग्राम में सभा द्वारा जनता का उद्बोधन हो, गांव-गांव में संस्कारवादी कथा सुनाई जाए। वैसे ही हर गांव में पाठशाला, व्यायामशाला हो तथा प्रत्येक पर्व पर महोत्सव मनाया जाए।
सुभाषित क्रम १७
धर्मो दर्थः प्रभावते, धर्मात् प्रभावते सुखम् ।
धर्मेंण लभते सर्वं, धर्मसारमिदं जगत् ।।
(स्रोत : रामायण अयोध्या काण्ड)
भावार्थ : धर्म से ही अर्थ प्राप्ति होती है। धर्म से ही सुख मिलता है। सारी इच्छाएं भी धर्म से ही पूरी होती है। यह विश्व भी धर्म पर ही खड़ा है।
सुभाषित कर्म १८
शुभम कर्मणा सौम्यम, दुखंपाएन कर्मणा ।
कृतं फलति सर्वत्र, नाकृतं भूज्यते क्वचित ।।
भावार्थ : शुभ कार्य से सुख तथा पाप कर्म से दुख प्राप्त होता है। सर्वत्र कर्म ही फल देता है। बिना किए हुए कर्म का फल नहीं पहुंचा जा सकता।
सुभाषित क्रम १९
निश्चित्य यः यस प्रक्रमते नान्तर्वसती कर्मणः ।
अवन्ध्यकालो वश्यात्मा सवै पंडित उच्यते ।।
( स्रोत : विदुर नीति )
भावार्थ : जो पहले निश्चय करके फिर कार्य प्रारंभ करता है। कार्य के बीच में नहीं रुकता। समय को व्यर्थ नहीं जाने देता और चित्त को वश में रखता है, वही विद्वान कहलाता है।
सुभाषित क्रम २०
ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवाः,
स्वस्ति ना पूषा विश्ववेदा: ।
स्वस्ति नासतक्षर्यो अरिष्ठनेमी:,
स्वस्ति नो बृहस्पति र्दधातु ।।
(गणेश पुराण ११९\३२११)
अर्थ : महान कीर्ति से युक्त देवराज इंद्र हमारा कल्याण करें। विश्व के ज्ञान स्वरूप पूषा देव अपने ज्ञान से हमारा कल्याण करें। भगवान गरुड़ देव जिनके हथियार अरिष्ट भंग करने में समर्थ हैं। हमारी रक्षा करें और देव गुरु बृहस्पति हमारे घर (संगठन) में कल्याणक की प्रतिष्ठा करें।
सुभाषित क्रम २१
समाजैक्यम अभीष्टम नो वैषम्येन न साध्यते।
समाज सामरस्याद वै नान्यः पन्था हि विधते।।
अर्थ : सामाजिक एकता जो कि हमारी चिर आकांक्षा है। यह विषमता के व्यवहार से संभव नहीं है। उसके लिए सामाजिक समरसता के अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं है।
सुभाषित क्रम २२
सर्व-धर्म समावृति:, सर्वजाति समामति: ।
सर्व-सेवा परानीति:, रीति संघस्य पद्धति: ।।
अर्थ : सभी धर्मों के साथ समान वृत्ति, सभी जातियों के साथ समानता, सभी लोगों के साथ सेवा परायणता, की नीति, यह संघ की पद्धति है।
सुभाषित क्रम २३
मूले ब्रह्मा त्वचा विष्णु शाखा शंकरमेवच।
पत्रे पत्रे सर्वदेवायाम् वृक्ष राज्ञो नमोस्तुते।।
भावार्थ-जिस वृक्ष की जड़ में ब्रह्मा जी तने पर श्री हरि विष्णु जी एवं शाखाओं पर देव आदि देव महादेव भगवान शंकर जी का निवास है और उस वृक्ष के पत्ते पत्ते पर सभी देवताओं का वास है ऐसे वृक्षों के राजा पीपल को नमस्कार है।
सुभाषित क्रम २४
अश्वत्थमेकम् पिचुमन्दमेकम्
न्यग्रोधमेकम् दश चिञ्चिणीकान्।
कपित्थबिल्वाऽऽमलकत्रयञ्च
पञ्चाऽऽम्रमुप्त्वा नरकन्न पश्येत्।।
(स्कंद पुराण)
भावार्थ :-
अश्वत्थः = पीपल (100% कार्बन डाइऑक्साइड सोखता है)
पिचुमन्दः = नीम (80% कार्बन डाइऑक्साइड सोखता है)
न्यग्रोधः = वटवृक्ष(80% कार्बन डाइऑक्साइड सोखता है)
चिञ्चिणी = इमली (80% कार्बन डाइऑक्साइड सोखता है)
कपित्थः = कविट (80% कार्बन डाइऑक्साइड सोखता है)
बिल्वः = बेल(85% कार्बन डाइऑक्साइड सोखता है)
आमलकः = आवला(74% कार्बन डाइऑक्साइड सोखता है)
आम्रः = आम (70% कार्बन डाइऑक्साइड सोखता है)
जो कोई इन वृक्षों के पौधो का रोपण करेगा, उनकी देखभाल करेगा उसे नरक के दर्शन नही करना पड़ेंगे।
सुभाषित क्रम २५
अश्वत्थमेकं पिचुमन्दमेकं, न्यग्रोधमेकं दशतिन्रिणीकम्।कपित्थबिल्वामलकी त्रयञ्च, पञ्चाम्ररोपी नरकं न पश्येत्।।
अर्थः जो व्यक्ति एक पीपल एक, नीम, एक बरगद, दस इमली, तीन दधिफल, तीन बेल, तीन आमला, और पांच आम के वृक्ष लगाता है वह कभी भी नरक नहीं देखता है। (उस व्यक्ति के लिए स्वर्ग के द्वार खुले होते हैं) मत्स्य पुराण (१५४ से ५१२) में कहा गया है एक वृक्ष का रोपण दस पुत्रों के लाभ जितना महत्वपूर्ण होता है।
सुभाषित क्रम २६
अपि स्वर्णमयी लंका, न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसी।।
अर्थः हे लक्ष्मण सोने की लंका भी मुझे अच्छी नहीं लगती है। माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है।
सुभाषित क्रम २७
हिन्दवः सोदरा: सर्वे, न हिंदू: पतितो भवेत्।
मम् दीक्षा हिंदू रक्षा, मम् मंत्र समानता।।
अर्थः सब हिंदू भाई है कोई भी हिंदू पतित नहीं है। हिंदुओं की रक्षा मेरी दीक्षा है। समानता ही मेरा मंत्र है।
सुभाषित क्रम २८
जाती पाती कुल धर्म बढ़ाई।
धन बल परिजन गुरु चतुराई।।
भगति हीन नर सोहई कैसा।
बिनु जल वारिद देखिअ जैसा।।
भावार्थः जाति-पाति, कुल धर्म, बढ़ाई, धन, बल, कुटुंब, गुण और चतुरता इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है जैसे जलहीन बादल शोभाहीन दिखाई पड़ता है।
सुभाषित क्रम २९
सामर्थ्यमूलमं स्वातं य श्रममूलं च वैभवम् ।
न्यायमूलं सुराज्यं स्यात् संघ मूलं महाबलम् ।।
अर्थ : स्वतंत्रता सामर्थ्य पर आधारित है, वैभव परिश्रम से प्राप्त होता है, सुराज्य उसी को कहेंगे जहां न्याय सुलभ हो तथा शक्ति का मूल संगठन है।
सुभाषित क्रम ३०
यदा दुषकरं दुरापंच कल्याणोदर्क मनन्तः ।
तदैव यत्नतः साध्यं प्राणैरपि धनैरपि ।।
अर्थ : जो कार्य संपन्न करना अत्यंत कठिन है, जो इप्सित प्राप्त करना असंभव है, परंतु अंततोगत्वा जो राष्ट्र हित में है वह कार्य संपत्ति तथा प्राणों का त्याग करते हुए भी प्रयत्न पूर्वक साध्य करें।
सुभाषित क्रम ३१
न धनेन प्रभुतेन शासकीयबलेन वा ।
लोक संगठनाकार्यं संसिध्यति कदाचन ।।
अर्थ : लोक संगठन का कार्य प्रचुर मात्रा में धन प्रयोग से अथवा शासन की शक्ति के प्रयोग से कदापि सम्यक (योग्य) सिद्ध नहीं होता।
सुभाषित क्रम ३२
शनै: पंथा शनै: कन्था: शनै: पर्वतवंधनम् ।
शनैर्विद्या शनैर्वितं, पंचैतानि शनै: शनै: ।।
अर्थ : मार्गक्रमण, गुदड़ी सीना, (जीर्ण वस्त्र सीना) पर्वत लांघना, विद्यार्जन तथा धन संचय ये पांच कार्य धीरे-धीरे (धैर्य से) संपन्न किये जाने चाहिए।
सुभाषित क्रम ३३
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् ?
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पण किं करिषयति ?
अर्थ : नेत्रहीन (अंधे) व्यक्ति के लिए दर्पण (शीशा) क्या उपकार कर सकता है ? दर्पण तो नेत्र वाले के लिए सार्थक है। इसी प्रकार जिसके पास स्वयं की विचार शक्ति नहीं है, शास्त्र उसका क्या उपकार कर सकता है ?
सुभाषित क्रम ३४
सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्याऽभ्यासेन रक्ष्यते।
मृज्यया रक्ष्यते रूपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते॥
अर्थ : धर्म की रक्षा सत्य से , विद्या की अभ्यास से , रूप की सफाई से और कुल की रक्षा अच्छे आचरण करने से होती है।
सुभाषित क्रम ३५
न दैवप्रमाणानां कार्यसिद्धिः।
(चाणक्य सूत्र, १३०)
भावार्थ :— भाग्य के भरोसे रहने वाले व्यक्ति का कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता है।
उक्त श्लोक में आचार्य चाणक्य का आशय है कि पुरुषार्थ विहीन, भाग्य के आधार पर बैठा रहने वाला व्यक्ति किसी भी कार्य को सिद्ध नहीं कर सकता है। अर्थात् पुरुषार्थी मनुष्य ही उच्च लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है; पुरुषार्थ विहीन मनुष्य द्वारा किसी महान लक्ष्य की प्राप्ति कर पाना सर्वथा असंभव है।
सुभाषित क्रम ३६
विद्या विद्यादायधनम् मदाय शक्ति: परेषां परिपीडनाय ।खलश्य् साधोर् विपरीतमेदत् ज्ञानय दानाय च रक्षणाय ।।
भावार्थ:-- दुर्जन की विद्या विवाद के लिए, धन उन्माद के लिए, और शक्ति दूसरों का दमन करने के लिए होती है।
सज्जन इसी को ज्ञान,दान और रक्षण के लिए उपयोग करते हैं ।।
सुभाषित क्रम ३७
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपु:।
नास्तयुद्यमसमो बन्धु कृत्वा यं नावसीदति ।।
अर्थ -- आलस्य मनुष्य के शरीर में रहने वाला बहुत बड़ा शत्रु है। अन्य शत्रु बाहर से आक्रमण करते हैं, यह (आलस्य) अंदर से आक्रमण करता है। उद्यम (पुरुषार्थ) के समान कोई बंधु नहीं है। उद्यमी मनुष्य कभी दुखी नहीं होता है।
सुभाषित क्रम ३८
ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे।
भए समर सागर कहैं बेरे।।
मम हित लागि जन्म इस हारे।
भरतहु ते मोहि अधिक पियारे।।
(श्रीरामचरितमानस)
[लंका विजय के पश्चात बानर, भालू आदि सखाओ सहित अयोध्या लौटने पर अपने गुरु वशिष्ट से उनका परिचय करते हुए भगवान श्री रामचंद्र जी कह रहे हैं]
अर्थ--- से मुनि! सुनिए। ये सब सखा मेरे मित्र है। ये संग्राम रूपी समुद्र में मेरे लिए बेड़े (जलयान) के समान प्रस्तुत हुए। मेरे हित के लिए इन्होंने अपने प्राणों तक को होम कर दिया। ये मुझे भरत से भी अधिक प्रिय है।
सुभाषित क्रम ३९
यो न ह्रष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काड़्क्षति।
शुभाशुभ परीत्यागी भक्तिमान्य: स में प्रिय:।।
भावार्थ --- जो पुरुष न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ संपूर्ण कर्मों का त्यागी है वह भक्तियुक्त मनुष्य मुझे प्रिय है।
सुभाषित क्रम ४०
हीयते हि मतिस्तात! हीनै: सही समागमात् ।
समैश्च समतामेति विशिष्टैष्च विशिष्टताम् ।।
अर्थ :- नीचों से संपर्क करने से बुद्धि नीच बन जाती है। समान शील विद्या वाले व्यक्ति के संपर्क से बुद्धि उन्हीं के समान रहती है, किंतु अपने से विशिष्ट लोगों के संपर्क से बुद्धि विकसित होती है।
सुभाषित क्रम ४१
सुखार्था सर्वभूतानां माता:सर्वा: प्रवृत्त: ।
ज्ञानाज्ञान विशेषात्तु मार्गामार्ग प्रवृत्त: ।।
भावार्थ - सभी प्राणी सुख की कामना करते हैं और उनकी मनोवृत्ति सुख पाने की ही होती है पर जो मनुष्य विवेक से युक्त होकर (करने योग्य) कार्य करता है वह सुखकारी मार्ग में रहता है यानी सुख पाता है और जो विवेकहीन होकर (न करने योग्य) कार्य करता है वह दुख का भागी होता है।
सुभाषित क्रम ४२
परोपकाराय फलन्ति वृक्षा: परोपकाराय बहन्ति नद्य:।परोपकाराय दुहन्ति गांव: परोपकारार्थमिदं शरीरम्।।
भावार्थ : वृक्ष दूसरों की भलाई के लिए फल देते हैं। नदिया दूसरों की भलाई के लिए बहतीं हैं। गाय भी दूसरों के लिए दूध देती है। उसी प्रकार शरीर भी हमें दूसरों की भलाई के लिए ही दिया गया है।
सुभाषित क्रम ४३
समर विजय रघुबीर के चरित्र जे सुनही सुजान।
बिजय बिवेक बिभूति नित तिन्हहि देहि भगवान्।।
(श्री रामचरितमानस)
अर्थ - जो सुजान लोग श्री राम के (रावण के विरुद्ध) समर विजय संबंधी लीला को सुनते हैं, उनको भगवान नित्य, विजय, विवेक और ऐश्वर्य देते हैं।
सुभाषित क्रम ४४
कन्द मूल फल सरस अति दिए राम कहुं आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बरखानि।।
(श्रीरामचरितमानस)
अर्थ :--(दण्डकारण्य में प्रवेश करने पर सर्वप्रथम भगवान) श्री राम जी अस्पृश्य, तिरस्कृत एवं अभिशप्त वीर नारी शबरी माता की कुटिया पर पधारे। शबरी मां ने अगाध प्रेम व श्रद्धा के वशीभूत श्रीराम जी को चख-चख कर मीठे बेर खाने को दिये। प्रभु ने बार-बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेम सहित खाया।
सुभाषित क्रम ४५
यह सूधि कोल किरातन्ह पाई।
हरषे जनु नव निधि घर आई।।
कन्द मूल फल भरी-भरी दोना।
चले रंक जनु लोटन सोना।।
(श्रीरामचरितमानस)
अर्थ :- यह (श्री राम जी के चित्रकूट आगमन का) समाचार जब कोलभीलों ने पाया तो वे ऐसे हर्षित हुए जैसे मानो शवों निधियां उनके घर पर ही आ गई हो। वह दोनों में कन्द मूल भर-भर कर (श्री राम जी को खिलाने) चले। मानो दरिद्र सोना लूटने चले हो।
सुभाषित क्रम ४६
न त्वहं कामये राज्यम् न स्वर्ग न पुनर्भवम्।
कामये दुःख तप्तानां, प्राणिनायर्तिनाशनम् ।।
भावार्थ : मैं राज्य की कामना नहीं करता, मुझे स्वर्ग और मोक्ष नहीं चाहिए। दु:ख से पीड़ित प्राणियों के दु:ख दूर करने में सहायक हो सकूं, यही मेरी कामना है।
सुभाषित क्रम ४७
देश रक्षा समं पूण्यं, देश रक्षा समं व्रतों।
देश रक्षा समं मांगों, दृष्टो नैव च नैव च।।
अर्थ :- देश रक्षा के समान पुण्य, देश रक्षा के समान व्रत और देश रक्षा के समान कोई यज्ञ नहीं देखा गया। अर्थात देश रक्षा ही सर्वोच्च कार्य है।
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