संघ यात्रा संगठन व सेवा के 100 वर्ष

श्रद्धामय विश्वास बढ़ाकर, सामाजिक सद्भाव जगाएं। 

अपने प्रेम परिश्रम के बल, भारत में नव सूर्य उगाएं ।।
जाग रहा है जन-गण-मन! निश्चित होगा परिवर्तन.........

शुद्ध सनातन परंपरामय, प्रेम भरा व्यवहार रहे। 
ऋषि मुनियों की शिक्षाओं पर चलने का संस्कार रहे।
राह रपटती इस दुनिया में, कुल कुटुंब का संरक्षण।।
निश्चित होगा परिवर्तन……

 सब समाज अंगान परस्पर, छुआछूत लवलेश ना हो।
 प्रीति प्रीति भर गहन सभी में, भेदभाव अवशेष ना हो।
 बने परस्पर पूरक पोषण, हृदयों में रसदार सृजन।।
 निश्चित होगा परिवर्तन…………

हरी भरी हो धरती अपनी, मिट्टी का भी हो पोषण। पंचतत्व की मंगल महिमा, दिव्य धरा के आभूषण।।पुरखों के विज्ञान धर्म की, परंपरा का करें व्रत।।निश्चित होगा परिवर्तन ……

स्वाभिमान भर, भाव स्वदेशी, स्वत्व बोध का ले आधार। परहित यान परस्पर पूरक, जन जीवन का शिष्टाचार।। विश्व मंच पर भारत मां के, यश की हो अनुगूॅज सघन।।........
निश्चित होगा परिवर्तन

संघ यात्रा : संगठन व सेवा के 100 वर्ष
प्रस्तावना- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने स्थापना के 100 वर्ष पूर्ण कर लिये है। संघ की स्थापना पूजनीय डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार जी ने विक्रमी संवत 1982 की विजयदशमी (27 सितंबर, 1925) को नागपुर (महाराष्ट्र) में की थी। संघ स्थापना का उद्देश्य संपूर्ण हिंदू समाज को संगठित कर हिंदुत्व के अधिष्ठान पर अपने इस भारत राष्ट्र को समर्थ और परम वैभवशाली बनाना है। इस महत्वपूर्ण कार्य हेतु गुणवान एवं समर्पित कार्यकर्ता आवश्यक थे। ऐसे कार्यकर्ता निर्माण के लिए डॉ. हेडगेवार ने एक सरल किंतु अत्यंत परिमाण कारक दैनन्दिन 'शाखा' की पद्धति संघ में विकसित की। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए संघ के स्वयंसेवक गत 100 वर्षों से वर्षों से समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय है और प्रयत्न कर रहे हैं। यह यात्रा एक रोचक कहानी है। संघ उपहास, विरोध के मार्ग को पार कर स्वीकृति एवं समर्थन की प्राप्ति की स्थिति में पहुंच गया है।

     आज संघ कार्य सर्वदूर, सभी क्षेत्रों में पहुंचा और प्रभावी बना है। देश भर में 51740 स्थान पर 83129 दैनिक शाखाएं तथा अन्य 26460 स्थानों पर 32147 साप्ताहिक मिलनों के माध्यम से संघ कार्य का देश व्यापी विस्तार हुआ है, जो लगातार बढ़ रहा है। स्वयंसेवक अपनी क्षमता के अनुसार सामाजिक समस्याओं व चुनौतियों के समाधान करने में स्वयं से लगे हुए हैं।आज संघ स्वयंसेवक समाज के सहयोग से स्वास्थ्य, शिक्षा, संस्कार और स्वावलंबन के विषयों पर ग्रामीण और नगरीय क्षेत्र में 1,29,000 सेवा कार्य व गतिविधियां चला रहे हैं। समाज परिवर्तन के इन प्रयासों में समाज का भरपूर सहयोग और समर्थन मिल रहा है। संघ के स्वयंसेवक अपने परिवार में संघ जीवन शैली को अपनाते हुए समाज अनुकूल परिवर्तन करने का प्रयास करते हैं। साथ ही व्यापक समाज परिवर्तन के लिए विभिन्न प्रकार के उपक्रम नियमित रूप से करते रहते हैं। शताब्दी वर्ष में पंच परिवर्तन- 

1. सामाजिक समरसता, 
2. पर्यावरण संरक्षण, 
3. कुटुंब प्रबोधन, 
4. स्व आधारित जीवन, 
5. नागरिक कर्तव्य बोध, 

     इन विषयों पर परिवर्तन हेतु जन जागरण के प्रयास चलेंगे। यह आज की परिस्थितियों में आवश्यक है। शताब्दी वर्ष के बाद भी यह उपक्रम निरंतर चलते रहेंगे। 

     जब हम वर्तमान परिदृश्य का विचार करते हैं तो भारत का भविष्य उज्जवल दिखाई देता है, लेकिन अनेक चुनौतियां भी सामने खड़ी है। उन चुनौतियों का समाधान भी समाज को संगठित होकर करना होगा। तभी भारत समर्थशाली बनेगा। संघ शताब्दी के इस वर्ष में स्वयंसेवक वर्षभर अनेक कार्यक्रमों के माध्यम से समाज में संपर्क करेंगे। इस निमित्त विजयादशमी उत्सव, घर-घर संपर्क, हिंदू सम्मेलन, प्रमुख - जन गोष्ठियां, सामाजिक सद्भाव बैठकें तथा युवाओं के कार्यक्रम होने वाले हैं। इस पुस्तक में संघ की 100 वर्षों की यात्रा, वर्तमान परिदृश्य, चुनौतियां और भूमिका और पंच परिवर्तन के बारे में बताया गया है। समाज के चिंतन के लिए यह पुस्तक आपके हाथों में है। इस पुस्तक के विषय घर-घर व्यक्ति-व्यक्ति के अंत:करणों में पहुंचे और हमारे व्यवहार में आए, यही इसका उद्देश्य है। विश्वास है, हम इसमें सफल होंगे।

दत्तात्रेय होशबाले 
सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 

तिथि: विक्रम संवत् 2082, भाद्रपद शुक्ल एकादशी 
(तदनुसार 3 सितंबर 2025)

1. संघ यात्रा : राष्ट्र सेवा के 100 वर्ष 
     राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के 100 वर्ष पूर्ण हुए हैं। विक्रम संवत 1982 के विजयदशमी अर्थात 27 सितंबर, 1925 के शुभ दिन इस कार्य का आरंभ हुआ। संपूर्ण हिंदू समाज को संगठित करने के उद्देश्य से इस कार्य की शुरुआत हुई तथा तभी से लोगों के सहयोग एवं सहभागिता से संघ का अधिकार सतत विस्तार हो रहा है। संघ की प्रतिदिन चलने वाली शाखाओं के माध्यम से इस कार्य का निरंतर विकास होता जा रहा है। संघ शाखा से जुड़े बालको, युवाओं तथा प्रौढ़ लोगों के उत्साह तथा वहां नित्य चलने वाली साधना से उनके जीवन में हो रहे सकारात्मक परिवर्तन को समाज भी अनुभव कर रहा है। इससे संघ शक्ति सतत बढ़ रही है तथा समाज में संघ कार्य की स्वीकृति भी बढ़ रही है। 100 वर्ष से चल रही इस सामूहिक यात्रा को देखकर लोगों में संघ कार्य के साथ जुड़कर राष्ट्रहित के कार्यों को जानने तथा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से स्वयं सहभागी होने की उत्सुकता बढ़ रही है। संघ को समझना है तो संघ संस्थापक आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार को समझना आवश्यक है।

संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार 
डॉ. हेडगेवार जन्मजात देशभक्त थे तथा अंग्रेजों की गुलामी को लेकर उनके मन में तीव्र चिढ़ थी, आक्रोश था, जो उनके बाल्यावस्था में अनेक रूप में प्रकट होता दिखता है। परंतु उनके मन में यह विचार भी था कि केवल स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए प्रयास करना बीमारी के लक्षण का इलाज करने के समान है। इसलिए इस पर भी विचार करना होगा कि इतना विशाल ,समृद्ध और संपन्न भारतीय समाज किन कारणों से गुलाम बना? उन मूल बीमारियों का इलाज करने हेतु समाज में आत्म जागृति, स्वाभिमान, एकता, परस्पर स्नेह, अनुशासन और राष्ट्रीय चारित्र्य निर्माण आवश्यक है। इस मूलभूत उद्देश्य से स्वतंत्रता प्राप्ति के सभी प्रयासों में सक्रिय रहते हुए भी उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की।

संघ दृष्टि 
संपूर्ण भारत की पहचान जिससे है, उस अध्यात्म आधारित एकात्म और सर्वांगीण जीवन दृष्टि को दुनिया हिंदुत्व अथवा हिंदू जीवन दृष्टि के नाते जानती है। उस हिंदुत्व को जगा कर संपूर्ण समाज को एक सूत्र में जोड़कर निर्दोष और गुणवान हिंदू समाज के संगठन का यह कार्य, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नाम से शुरू हुआ। उस समय के परिदृश्य से परिचित होते हुए भी डाॅ. हेडगेवार की दृष्टि तत्कालीन परिस्थितियों से आगे बढ़कर विशिष्ट (unique), व्यापक तथा सर्व समावेशी और दूरगामी थी। उस कालखंड में भारत में अनेक आध्यात्मिक, सामाजिक या अन्य संगठन शुरू हुए और भारत को संवारने में उनका श्रेष्ठ योगदान रहा है। उसी तरह, हिंदू समाज में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नाम का एक और संगठन शुरू होना स्वाभाविक नहीं था। परंतु पहले दिन से यह स्पष्ट था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समाज के अंतर्गत एक संगठन या संस्था बनकर नहीं, बल्कि संपूर्ण हिंदू समाज का संगठन बनकर कार्य करेगा। डॉ हेडगेवार ने वादोनाऽवलम्ब्या: ( वाद-विवाद में ना पड़ते हुए) और 'सर्वेषाम अविरोधेन' ( किसी से विरोध न रखते हुए) संपूर्ण समाज को संगठित करने का संकल्प लिया। वर्तमान सर संघ चालक डॉ. मोहन भागवत जी ने एक वक्तव्य में कहा था, "किसी ने हमारा विरोध करने का पहले ही तय किया हो, हमारा विरोधी कोई नहीं है। उनके संघ विरोध से संघ को नुकसान ना हो, यह सावधानी रखने से हम उन्हें आत्मीयता पूर्वक मिलने जाएंगे।"

     स्वामी विवेकानंद दो वर्ष भारत भ्रमण करने के पश्चात 1893 में अमेरिका गए। चार वर्ष अमेरिका और यूरोप का भ्रमण कर वे 1897 में भारत वापस आए। तब उन्होंने सार रूप में भारतीयों को तीन बातें बताई। एक, भारत के समाज को संगठित करना। दूसरा, हमें व्यक्ति निर्माण का कोई तंत्र विकसित करना चाहिए। और तीसरा आने वाले कुछ वर्षों के लिए सारे भारतीय एक ही देवता की आराधना उपासना करें, वह यानी भारत माता। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य प्रारंभ होने से स्वामी जी की इन तीनों बातों को साकार रूप मिल गया।

नित्य-अनित्य कार्य 
     व्यक्ति निर्माण तथा समाज संगठन का यह सदा सर्वदा परिस्थिति निरपेक्ष 'नित्य' कार्य शाखा के माध्यम से अविरत चलता रहेगा। साथ ही समय-समय पर परिस्थिति वश समाज में उठने वाले अन्य आह्वानों से निपटने के लिए 'अनित्य' परन्तु आवश्यक कार्य में भी स्वयंसेवक अपनी सक्रिय भूमिका निभाएंगे, यह पाठ भी हेडगेवार जी ने अपने आचरण से सिखाया। संघ स्थापना से पहले 1921 में महात्मा गांधी जी के आह्वान पर हुए असहयोग आंदोलन (non cooperation) में डॉ. हेडगेवार सहभागी हुए थे। उन्हें एक वर्ष सश्रम कारावास भी सहना पड़ा था। संघ स्थापना के पश्चात महात्मा गांधी के आह्वान पर सविनय अवज्ञा आंदोलन के तहत 1930 के सत्याग्रह में ('अनित्य' कार्य) स्वयंसेवक के नाते हेडगेवार जी अन्य स्वयंसेवकों के साथ सहभागी हुए थे और 9 महीने कारावास में रहे। परंतु उसी के साथ संघ का 'नित्य' कार्य अविरत चलता रहे, इसके लिए उन्होंने सरसंघचालक का दायित्व अपने सहयोगी को सौपा था। यह 'नित्यानित्य विवेक' डॉ. हेडगेवार जी की विशेषता थी, जो न केवल महत्वपूर्ण थी, बल्कि संघ कार्य की आगे की यात्रा के लिए मार्गदर्शन भी थी।

     समाज से धन लेकर समाजहित के कार्य करने की परंपरा भारत में पहले भी थी, आज भी है। परंतु संघ कार्य यह राष्ट्र कार्य है, मेरा कार्य है और यह समाज से धन लेकर नहीं, स्वयंसेवकों से गुरु दक्षिणा के रूप में प्राप्त समर्पण राशि से ही चलेगा, ऐसा अनोखा विचार हेडगेवार जी ने किया और उसे लागू किया, जो आज भी चल रहा है। श्रेष्ठ आदर्श व्यक्ति को गुरु मानने की परंपरा भारत में सदियों से रही है और आज भी प्रचलित है। परंतु संपूर्ण समाज का संगठन होने के कारण संघ में कोई व्यक्ति गुरु नहीं है। हिंदू समाज जितना प्राचीन है, उसका गुरु, हिंदुत्व का प्रतिनिधि और उतना ही प्राचीन कोई प्रतीक हो सकता है, यह सोचकर भगवा ध्वज गुरु के नाते संघ में स्थापित हुआ।

व्यक्ति निर्माण की पद्धति
     राष्ट्रीय चरित्र निर्माण और सामूहिक गुणों की उपासना (साधना), उन राष्ट्रीय गुणों का सामूहिक अभ्यास ( practice )करने हेतु तथा अपने ध्येय का नित्य स्मरण करने के लिए दैनिन्दिन एकत्र होने के लिए शाखा नामक कार्य पद्धति संघ में विकसित हुई। दैनिन्दिन 1 घंटा चलने वाली शाखा में यह भाव जगाया जाता है कि भारत का संपूर्ण समाज एक है, समान है और सभी अपने हैं। साथ ही उद्यम, साहस, धैर्य, शक्ति, बुद्धि और पराक्रम जैसे गुण विकसित करने के लिए खेल आदि विविध कार्यक्रम शाखा पर होते हैं। अनुशासन, एकता, वीरत्व और सामाजिकता का भाव निर्माण करने हेतु समता अभ्यास (परेड), बैण्ड के ताल पर पद संचलन (Root Msrch) और योग - व्यायाम (पीटी) जैसे कार्यक्रम शाखा में होने लगे और आज भी हो रहे हैं। समाज को अपना मानकर उनके लिए कुछ ना कुछ व कभी-कभी सब कुछ देने का (समाज को वापस लौटने का) संस्कार इसी शाखा से प्राप्त होता है। इस विचार को व्रत के नाते स्वीकार कर जीवन भर उसका पालन करने का संकल्प लेकर जीने वाले हजारों स्वयंसेवक सक्रिय है। ऐसे सहयोगी कार्यकर्ताओं को देखकर प्रेरित हुए हजारों लाखों कार्यकर्ताओं के द्वारा आनंद के साथ या समर्पण यज्ञ अविरत चल रहा है।

कार्य विस्तार 
     आज संपूर्ण भारत के कुल 924 जिलों में से 98.3 प्रतिशत जिलों में संघ की शाखाएं चल रही है। कल 6618 खण्डों में से 92.3 प्रतिशत खण्डों (तालुका), कुल 58936 मंडलों में से (मंडल यानी 10 - 12 ग्रामों का एक समूह) 52.2 प्रतिशत मंडलों में, 51710 स्थानों पर 83129 दैनिक शाखाएं तथा अन्य 26460 स्थानों पर 32147 साप्ताहिक मिलन केंद्रों के माध्यम से संघ कार्य का देश व्यापी विस्तार हुआ है, जो लगातार बढ़ रहा है। इन 83129 दैनिक शाखाओं में से 59 प्रतिशत शाखाएं छात्रों की है तथा शेष 41 प्रतिशत व्यवसायी स्वयंसेवकों की शाखाओं में से 11 प्रतिशत शाखाएं प्रौढ़ (40 वर्ष से ऊपर आयु) स्वयंसेवकों की है। बाकी सभी शाखाएं युवा व्यवसायी स्वयंसेवकों की है।

राष्ट्र की अवधारणा 
     संघ की यह मान्यता है कि हमारा यह राष्ट्र केवल पुरातन ही नहीं, अपितु चिरंतन राष्ट्र है। केवल भौगोलिक सीमाओं तथा राजनीतिक व्यवस्था के आधार पर भारत का निर्माण नहीं हुआ है। परंतु इस भूमि को मातृ भूमि मानकर उसकी निरंतर सेवा में जुटे करोड़ों लोगों की सतत चली सांस्कृतिक साधना में भारत बना है। सभी में ईश्वरीय तत्व के मान्यता से विविध रूप में दिखाई देने वाले लोगों तथा प्रकृति के स्वरूप में समानता ढूंढने की संस्कृति से सभी भारतवासी जुड़े हैं। यह संस्कृति के समान धारणां ही हिंदुत्व का प्रकटीकरण है तथा इस हिंदुत्व के आधार पर यह राष्ट्र युगों तक जीवित है वह रहेगा।

     भारत के लिए हमारा राष्ट्र यानी यहां का समाज है। यहां पश्चिम के Nation-State से भिन्न है, इसे समझना होगा। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. प्रणब मुखर्जी जब 2018 में संघ स्वयंसेवकों को संबोधित करने के लिए नागपुर पधारे थे, तब उन्होंने भी यही बात अधोरेखित की थी। उन्होंने कहा था - "पश्चिम की राज्य आधारित राष्ट्र Nation-State की संकल्पना और भारतीय जीवन दृष्टि पर आधारित राष्ट्र की भारतीय संकल्पना भिन्न है।" भारतीय समाज के इस राष्ट्र की दो विशेषताएं हैं। एक, इसकी जीवन दृष्टि ( view of life ) का आधार आध्यात्मिक है। इसलिए वह एकात्म और सर्वांगीण है। यह सारी सृष्टि को परस्पर जुड़ा हुआ (connected) मानती है। इसलिए भारत का विचार "वसुधैव कुटुंबकम्" यानी संपूर्ण सृष्टि एक परिवार है। और दूसरा इस राष्ट्र का राज्य पर आधारित नहीं होना। अपने "स्वदेशी समाज" निबंध में गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर कहते हैं की Welfare State, यह भारत की परंपरा कभी नहीं रही है। समाज की प्रत्येक बात के लिए सरकार पर निर्भरता जरूरी नहीं। कई विषयों में सामाजिक व्यवस्था के बल पर समाज को चलना चाहिए।

धर्म की संकल्पना
 स्वाधीनता के समय भारत के निर्माताओं के मन में यह "धर्म" भाव स्पष्ट रहा होगा। यह धर्म यानी Religion नहीं है, इसे ध्यान में रखना होगा। इसीलिए भारत की लोकसभा में "धर्मचक्र प्रवर्तनाय" लिखा है। राज्यसभा में "सत्यं वद धर्मं चर", उच्चतम न्यायालय का बोधवाक्य "यतो धर्मततो जय:" और भारत के राष्ट्रध्वज पर जो चक्र अंकित है, वह "धर्मचक्र" है। चक्र घूमने के लिए ही होता है। समाज को लौटाने का प्रत्येक प्रयास छोटा या बड़ा धर्म कार्य है और ऐसे छोटे-छोटे प्रयासों से धर्म चक्र चलता है, गतिमान होता है, प्रवर्तमान रहता है। लोकसभा, राज्यसभा, उच्चतम न्यायालय, राष्ट्रध्वज जैसे प्रमुख स्थानों पर "धर्म" (Not Religion) का इतना स्पष्ट उल्लेख इस राष्ट्र की विशेषता दर्शाता है।

संघ यात्रा के पड़ाव 
     संघ कार्य की इस शतकीय यात्रा के चार प्रमुख पड़ाव (Phases) रहे हैं। पहला पड़ाव संघ स्थापना से भारत की स्वाधीनता तक माना जाएगा, जिसमें स्वयंसेवक, व्यक्तिगत स्तर पर उस समय चल रहे स्वाधीनता आंदोलन में शामिल था।

     हिंदू समाज संगठित हो सकता है, कदम से कदम मिलाकर एक दिशा में एक साथ चल सकता है, एक मन से, एक स्वर में एक भारत की, राष्ट्रीयता की, हिंदुत्व की बात कर सकता है, ऐसा विश्वास समाज में निर्माण करना आवश्यक था। इसलिए इसे केंद्र बिंदु बनाकर प्रारंभिक काल में संघ के सारे कार्य चल रहे थे।
1940 में अल्फ़ाज़ में ही संघ संस्थापक आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार के निधन के पश्चात युवा श्री गुरु जी अर्थात माधव सदाशिव गोलवलकर ने दूसरे सरसंघचालक का दायित्व संभाला। उन दोनों एक तरफ समाज में स्वाधीनता की ललक बढ़ रही थी, तो दूसरी और देश विभाजित करने का षड्यंत्र भी तेजी से आगे बढ़ता दिखाई दे रहा था। ऐसे कठिन समय में श्री गुरु जी के आह्वान पर कई स्वयंसेवकों ने संघ कार्य के शीघ्र विस्तार में स्वयं को झोंक दिया ताकि समस्त हिंदू समाज को संभावित संकट से बचाया जा सके। 1947 के देश विभाजन के दौरान सभी स्वयंसेवक हिंदुओं को बचाने, उन्हें सुरक्षित स्थान पर पहुंचाने तथा विस्थापित लोगों की सहायता में जुटे हुए थे।

     डॉक्टर हेडगेवार द्वारा एक छोटी सी बैठक में नागपुर में संघ की स्थापना हुई। उनके जीवन काल में संघ से जुड़े युवा कार्यकर्ताओं के माध्यम से धीरे-धीरे कम कलावधि में ही संघ कार्य देशव्यापी हो गया। यह सारा कार्य बिना किसी प्रसिद्ध के केवल शुद्ध राष्ट्रीय विचार, देशभक्ति व स्वयंसेवक की भावना से कार्यकर्ताओं की छोटे समूह ने ही आगे बढ़ाया। जातिगत भेद से मुक्त "हिंदू हम सब एक" इस भाव से विभिन्न भाषाओं को बोलने वाले देश भर के कार्यकर्ताओं ने संघ कार्य को प्रारंभ से ही अखिल भारतीय स्वरूप दिया।

विविध संगठन 
     स्वाधीनता के तुरंत पश्चात 1948 में राजनीतिक कारणों से संघ पर प्रतिबंध लगा तथा श्री गुरु जी सहित कई कार्यकर्ताओं को जेल भेजा गया। बातचीत के सभी मार्ग असफल होने पर संघ के स्वयंसेवकों द्वारा लोकतांत्रिक पद्धति से किए गए सत्याग्रह के परिणाम स्वरूप सरकार को संघ पर लगी पाबंदी को हटाना पड़ा।
हजार वर्षों के सतत संघर्ष के उपरांत भारत को स्वाधीनता प्राप्त हुई। स्वाधीनता आंदोलन के प्रेरणा जी जिस 'स्व' के आधार पर थी, इस 'स्व' के आधार पर समाज जीवन का प्रत्येक क्षेत्र खड़ा हो, यह आवश्यक था। राष्ट्र जीवन की इसी दिशा में संपूर्ण समाज अग्रसर हो, इस हेतु से भारत की स्वतंत्रता के बाद शिक्षा, विद्यार्थी, राजनीति, मजदूर, बनवासी समाज, किसान, अधिवक्ता, वैज्ञानिक, कलाकार प्रबुद्धजन, आदि विभिन्न क्षेत्रों में भारत के शाश्वत राष्ट्रीय विचार से संघ प्रेरित विविध संगठन आरंभ हुए। संघ समाज को संगठित करने का कार्य तो कर ही रहा था, परंतु उसके साथ-साथ संपूर्ण समाज जीवन को प्राप्त करने वाले अनेक संगठन भी आरंभ हुए। यह संघ कार्य के विकास यात्रा का दूसरा पड़ाव था। आज अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, विद्या भारती, भारतीय जनता पार्टी, भारतीय मजदूर संघ, अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम, भारती किसान संघ, अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद, विज्ञान भारती, संस्कार भारती, लघु उद्योग भारती, प्रज्ञा प्रवाह, पूर्व सैनिक सेवा परिषद, जैसे 32 से भी अधिक संगठन समाज जीवन के विरुद्ध क्षेत्र में सक्रिय है और प्रभावी भी है। यह सभी संगठन स्वयंसेवकों द्वारा संघ की प्रेरणा से चल रहे हैं। यह सभी संगठन स्वायत्त और स्वतंत्र है तथा स्वावलंबी बनने की दिशा में निरंतर प्रयासरत है।

संघर्ष काल 
यह सभी संगठन राष्ट्रीय हित के महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाने तथा लोगों को न्याय दिलाने हेतु संघर्ष एवं सेवा करने में लगे हुए हैं। 1975-77 की आपातकाल विरोधी संघर्ष में विद्यार्थी परिषद सहित संघ के सभी स्वयंसेवकों ने लोकतंत्र की पुनर्स्थापना हेतु निर्णायक संघर्ष में पूरी ताकत से भागीदारी की। इस संघर्ष कल के पश्चात कटु अनुभवों को पीछे छोड़कर संघ के स्वयंसेवक पुनः रचनात्मक कार्य में सक्रिय हो गए।
अगले पड़ाव में संघ कार्य का अधिक विस्तार हुआ तथा समाज में उसकी स्वीकार्यता भी बढ़ गई। संघ प्रेरित कई संगठनों में भी जन सहभाग एवं जन समर्थन व्यापक हो गया। कश्मीर के अलगाववाद व आतंकी हिंसा से प्रेरित लोगों की सहायता के साथ-साथ देश में जन जागरण के द्वारा समूचे देश को उसे पीड़ा से जोड़ने का प्रयास किया। अवैध घुसपैठ के विरोध में चल रहे संघर्ष में स्वयंसेवकों ने प्रत्यक्ष सहभागी होकर हर संभव समर्थन दिया। यह केवल असम की समस्या नहीं, अपितु राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा है, ऐसी जागरूकता बढ़ाने का प्रयास किया। उन्हीं दिनों देश भर में अयोध्या में राम जन्मभूमि पर भगवान श्री राम के भव्य मंदिर का निर्माण आंदोलन का शंखनाद हो रहा था। इस आंदोलन को राष्ट्रीय अस्मिता का विषय मानकर संघ ने अपना पूरा समर्थन दिया व मंदिर बनने तक प्रत्येक स्तर पर स्वयंसेवकों ने सहभाग लिया।


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